maa vasundhara .......
सुख सुमन पावन धरती ,
नित्य आद्र श्रृंगार करती ,
जीवन बीज संजोये रहती कोख ,
झलकते विषाद मौन लेती सोख ,
सुखद मनभावन था परिवेश ,
सतरंगी सावन लहलहाते यौवन केश ,
आद्र देह पल मे उग आये सपने ,
नव बीज से अंकुरित हुए अपने ,
नन्ही पौध था अपना दर्पण ,
धरा का भी था मौन समर्पण ,
बहुत सहेज कर था रखा ,
धरती माँ ने उस पल को ,
आखिर था खून से सींचा ,
अपनी ममता के फल को ,
पर रहता कब तक नन्ही पौध पर बचपन ,
खिल आया उस पर विद्रोही यौवन ,
लगे थे मुरझाने रिश्तों के फूल ,
कोमल स्पर्श अब लगते थे शूल ,
पुष्प सुशोभित युवा पौध इठलाता था ,
पत्तों मे ममता का रंग कहाँ दिख पाता था ,
तुम कुरुप बदरंग धरा हो ,
तुम से मेरा कैसा नाता ,
रंग सुगंध शोभित सुकुमार मैं ,
तुम को माता क्योंकर कह पाता ,
उगते तुम पर झाड़ कंद विषैले ,
खिलते मुझ पर रंगीले पुष्प निराले ,
करुँ व्यर्थ क्यों पुष्प मैं तुम पर ,
यह तो राज सिंहासन देवालय चढ़ने वाले ,
सुन सुकुमार वाणी विषाद ,
मूंद नेत्र रही मौन धरा ,
ठहर न पाये कुवचन कठोर ,
जब ममता कलश था पूर्ण भरा ,
समय चलता रहा निरंतर पथ पर ,
और ऋतुओं ने बदला अपना रंग ,
उस निर्दयी मौसम के आगे ,
छूटे सब यौवन के साथी और संग ,
जीवन अब मरू सा तपता था ,
ममता की ठंडी छाँवों थी कब ,
गर्म थपेड़ों संग कुम्हलाया ,
नन्हा सा जीवन अभिशाप था अब ,
बिखर गई थी पुष्पों की रंग बिरंगी झाँकी ,
आँखें मूंदे वो गिनता था अंतिम साँसे बाकी ,
फिर खुले नेत्र था अचरज युवा पौध ,
थी तन मे बाकी अब भी जीवन की कौंध ,
कोई तो था थामे मुझे भरी दोपहरी ,
नन्हे मन का था अब भी कोई प्रहरी ,
कृतज्ञ अचंभित था वो युवा पौध ,
आखिर यम मुख से किसने जीवन सतरंगी खींचा ,
छाँव रही मातृ धरा की उस अंतिम छन में ,
मातृ अश्रु ने ही अंतिम पल मे था साँसों को सींचा |
https://youtube.com/channel/UCJb-120N7imDDlqc10SQEyA
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