antim vishram .......
तैरती पलकों को निहारने दो ,
साँझ ढले लकदक मेघों का टहलना ,
पल मे भर देगी नीलमी फुहारों से ,
हर पहलू को बहुत भीतर तक ,
ऐसे मे रहूँगा मैं अकेला ,
धरा के उस उच्च शिखर पर ,
एकदम अकेला ,
अपने संचित स्पर्शों अनुभूति के साथ ,
तब शायद बरखा की बूंद ,
पत्तों की सरसराहट ,
चीड़, बाँझ का लहलहान भी व्यर्थ होगा ,
बरसती फुहारे चेहरे से टपकती ,
करेंगी उद्वेलित मेरी अंतर चेतना को ,
करूंगा महसूस उस काली गीली रात में कड़कती रोशनी का शोर ,
अपने एकांत मे एक शांत पहाड़ पर ,
तब कानों मे लहलहाती हवा ही होगी शेष ,
और एकांत,उस अँधेरे भीगे पहाड़ पर ,
अनुभूति के कितने ही विरले पल लेगा ख़ोज ,
अपने हाथों को हवा मे लहलहाते ,
गहरे घने काले बादलों मे ,
तब महसूस करूँगा हल्का तिनकों सा ,
एकसार हवा के थपेड़ों ,फुहारों के साथ ,
तब कोई विषाद न रहेगा शेष ,
यही भीगता अँधेरा डूबता पल ,
होगा मेरे आनंद की चरम अनुभूति ,
हों जैसे दुनिया के शीर्ष बिंदु पर ,
घने काले बादलों के स्वप्निल धुँएे मे ,
खोजते अपने को मेरे अनुभूति तंतु ,
तब मैं लूंगा अपनी आँखों को मूँद ,
बहुत गहरे से ,
यही होगा मेरा अंतिम विश्राम ,
शांत एकदम शांत ||
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