kisi aur nagar ka suraj ho tum

किसी और नगर का सूरज हो तुम,
किरणों का आभार भला क्यों,
घनघोर अँधेरे ही जब किस्मत हों,
नन्हे दीपों से प्यार भला क्यों||
रोज सवेरे उग आते थे,
जीवन रस आँचल मे भर के,
यौवन संग मधुमास खिला था,
नैनों मे प्रणय आवेदन धरके ||
अल्प प्रेम की अल्प छठा,
सुबह सवेरे घनघोर घटा थी,
किसी और क्षितिज पर तुम उग आए,
मेरी मुंडेर मायूस कड़ी थी ||
देख तुम्हें किसी और क्षितिज पर,
कहाँ कोई अब गुल खिलता है,
पहले खुशियों के दीप जले थे,
अब तो केवल मन जलता है ||
बस जाते तुम मेरे आँगन में,
ऐसी भी कोई तो रस्म नहीं थी,
महकाते बस मेरे जीवन को,
ऐसी भी कोई तो कसम नहीं थी ||
कसमे-वायदे सब वापस लेता हूँ,
जाओ तुमको मुक्त किया है,
लौटो तुम अपने नगर को,
जहाँ नियति ने नया क्षितिज दिया है ||
खुश हूँ तुमको है ठोर मिला जो,
मुझको तो मंजिल भी याद नहीं अब,
जाओ उजियारा कर दो बेगाने रस्तों को,
मुझको भी सूरज की चाह नहीं अब ||
                                                         -  सर्वेश नैथानी   





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