mera aakash .........
चलती कब थी मधुर हवा ,
माँगा कब निर्मल सरिता जल ,
जो देते तुम सर्वस्व निखार ,
पितृ रूप गर्वीले वट थे तुम ,
मैं नन्ही पौध सा मन था ,
तुमने कितने ही सावन देखे ,
पर दूर बहुत मुझसे यौवन था ,
देह तुम्हारी से फूटे थे ,
माना निर्मल अमृत धारा ,
कितना तुमने सोख लिया ,
कितना था मुझ पर वारा ,
भरी दोपहरी तपते थे तुम ,
थे बचपन की ठंडी छाँओ ,
योँ तो संबंधो मे पकड़ बहुत थी,
पर चले कदम तुम दबे पाँव ,
कब चाही सरिता की कल कल ,
चाहा कब दृढ़ आधार ,
बस हल्के से शीश सहलाते ,
दे देते मेरे हिस्से का प्यार ,
पर रिश्तों मे योँ अहं था भारी ,
ज्यों तपती धूप का तपता पल ,
मोह का जब पुट ही कम था ,
देते कैसे ममता का आँचल ,
मुझको तुम कुम्हलाते देखो ,
ऐसी तो तुम्हारी आस नहीं ,
रहने दो ये धूप जल और हवा ,
जब रिश्तों मे ही साँस नहीं ,
जो है जैसा है अब रहने दो ,
रहने दो अंतर्मन का अहसास ,
तुम भी अपने पंख फैलाओ ,
और दे दो मुझको मेरा आकाश ||
- सर्वेश नैथानी
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